मनोज बाजपेयी ने कहा: गुस्से ने बना दिए अनुराग कश्यप के दुश्मन, फिर भी वे नहीं झुके

कांच टूटे, हाथ तक जख्मी हुआ — मनोज बाजपेयी के मुताबिक यही है अनुराग का स्वभाव, और यही उनकी ताकत
मनोज बाजपेयी ने एक इंटरव्यू में साफ कहा कि फिल्ममेकर अनुराग कश्यप अपने गुस्से और समझौता न करने वाली आदत की वजह से इंडस्ट्री में कई दुश्मन बना बैठे हैं। उन्होंने यह भी जोड़ा कि यही जिद, यही यकीन उन्हें टिकाए भी रखता है। वह कांच तोड़ देने तक या खुद को चोट पहुंचा लेने तक गुस्से में चले जाते हैं, बीमार भी पड़े, पर अपने फैसलों से पीछे नहीं हटे।
बाजपेयी ने बात को यहीं नहीं छोड़ा। उन्होंने कहा, लोग केवल उनकी फिल्में देखते हैं, लेकिन सीख उनके सफर से मिलती है — लगातार ठोकरें, मुश्किलें और फिर भी काम के प्रति अनुशासन। उनके हिसाब से कश्यप उन फिल्मकारों के लिए मिसाल हैं जो रास्ते में आने वाले दबावों के आगे झुकने लगते हैं।
दोनों की कहानी 90 के दशक के आखिर से शुरू होती है। राम गोपाल वर्मा की सत्या में कश्यप ने लेखन किया और वही फिल्म बाजपेयी के भिकू म्हात्रे वाले किरदार से उन्हें अलग पहचान दिला गई। इसके बाद शूल और कौन जैसी फिल्मों में उनकी पेशेवर नज़दीकियां बनी रहीं। 2012 में गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 1 आया, और सियार की तरह धैर्यवान, पर फौलादी इरादों वाले सरदार खान के रूप में बाजपेयी फिर चर्चा में रहे। इस फिल्म ने हिंदी क्राइम-सिनेमा की टोन ही बदल दी।
मनोज ने खुलकर स्वीकार किया कि दोनों में गुस्सा साझा गुण है, पर वे खुद को ज्यादा व्यावहारिक मानते हैं। उनका कहना है, जब भी कश्यप ट्रोल्स को जवाब देने लगते हैं, तभी लगता है कि संतुलन बिगड़ सकता है। पर एक-दो दिन में वे लौट आते हैं, फिर वही फोकस, वही काम।
बीच में गलतफहमियां भी हुईं। सोशल मीडिया पर उन गलतफहमियों का आकार इसलिए बड़ा दिखा क्योंकि दोनों ने कभी बैठकर साफ-साफ बातें नहीं कीं। अब वे कहते हैं, जब बात न हो तो भ्रम बढ़ता ही है, जबकि असल वजह बहुत छोटी होती है।
कुछ दिन पहले मुंबई में जुगनुमा के प्रीमियर पर दोनों साथ दिखे। वही कार्यक्रम, जहां विजय वर्मा और जयदीप अहलावत के साथ कश्यप ने बाजपेयी के पैर छूकर सम्मान जताया। यह इशारा उनके रिश्ते की असलियत बताता है — मतभेद हो सकते हैं, पर पेशेवर सम्मान कायम रहता है।
यह पूरा प्रसंग सिर्फ दो कलाकारों की दोस्ती-तनातनी की कहानी नहीं है। यह बताता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के सेट्स पर टेम्परामेंट का रोल कितना बड़ा होता है। डेडलाइन, बजट, सेंसर, स्टूडियो नोट्स और मार्केटिंग के बीच डायरेक्टर का क्रिएटिव विजन कई बार टकराता है। कुछ लोग समन्वय चुनते हैं, कुछ लोग टकराव। कश्यप की इमेज दूसरी तरफ झुकती है — वे सौदेबाजी कम करते हैं, फैसले कड़े लेते हैं। कीमत भी चुकानी पड़ती है, लेकिन काम की पहचान अलग बनती है।
ट्रोल्स पर बाजपेयी का नजरिया व्यावहारिक है। उनकी राय में ट्रोलिंग से उलझना बेकार है, क्योंकि वहां सम्मान नहीं, बस कुंठा और शोर होता है। ऐसे लोग मेहनत से आगे बढ़े कलाकारों में कमी ढूंढते रहते हैं। इंडस्ट्री के कई बड़े नाम अब टीम-आधारित सोशल मीडिया रणनीति रखते हैं — नियम साफ हैं: भड़काऊ पोस्ट का जवाब नहीं, गलत सूचना का संक्षिप्त खंडन और फिर सीधे काम की बात।
फिल्मोग्राफी, नए प्रोजेक्ट और वह विमर्श जो हिंदी सिनेमा को दिशा देता है
बाजपेयी हाल में एक क्राइम-कॉमेडी में नजर आए, जो 5 सितंबर को नेटफ्लिक्स पर आई। उनकी परफॉर्मेंस को लेकर चर्चा है कि किस तरह वे जॉनर बदलते हुए भी किरदार को विश्वसनीय रखते हैं। उधर कश्यप की अगली फिल्म निशानची 19 सितंबर को सिनेमाघरों में रिलीज के लिए तय है। यह रिलीज कैलेंडर बताता है कि सोशल मीडिया की गहमागहमी से इतर दोनों अपने-अपने काम में जुटे हैं।
मनोज बाजपेयी का करियर उस दुर्लभ श्रेणी में आता है, जहां स्टारडम और अभिनय की साख साथ चलती है। कमर्शियल और इंडी, दोनों पटरी पर उनका संतुलन साफ दिखता है। कश्यप ने दूसरी तरफ हिंदी इंडी सिनेमा की आवाज को संस्थागत किया — क्वियर, डार्क, रियलिस्टिक और राजनीतिक कहानियों को मुख्यधारा की बातचीत में लाने का काम किया। गैंग्स ऑफ वासेपुर ने लोककथा, अपराध और राजनीति को एक फ्रेम में रखकर नया सौंदर्यशास्त्र बनाया।
उनकी साझेदारी को समझने के लिए इन पड़ावों को देखना जरूरी है:
- 1998: सत्या — एक ने लेखन में धार दी, दूसरे ने भिकू म्हात्रे से शहर की नब्ज पकड़ ली।
- 1999: शूल और कौन — रफ्तार बनी रही, कड़े किरदार और सख्त सौंदर्यशैली साथ चली।
- 2012: गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 1 — सरदार खान, लोक-गाथा वाला क्राइम यूनिवर्स और नेरेटिव में क्रूर ईमानदारी।
- 2024: जुगनुमा प्रीमियर पर फिर साथ, सम्मान के सार्वजनिक इशारे ने दूरी की बातें शांत कीं।
- सितंबर 2024: एक की वेब रिलीज, दूसरे की थिएट्रिकल — दोनों ट्रैक पर काम जारी।
बाजपेयी के बयान में जो कांच टूटने और हाथ तक जख्मी होने का जिक्र है, वह सिर्फ सनसनी नहीं है। यह उस मानसिक दबाव का प्रतीक है जो कई निर्देशकों पर रहता है। हर रोज सेट पर फैसले, रात को एडिट, सुबह मीटिंग, दोपहर में फाइनेंसिंग — और बीच-बीच में टोकाटाकी। ऐसे में कुछ लोग भीतर जख्मी रहते हैं, कुछ बाहर। फर्क यह है कि कौन अगले दिन फिर उसी जुनून के साथ कैमरे के सामने खड़ा हो पाता है।
युवा फिल्मकारों के लिए सबसे बड़ी सीख यह है कि करियर सिर्फ बॉक्स ऑफिस नहीं है। सफर लंबा है — छोटे बजट, कटे हुए सीन, अटकी रिलीज, और कभी-कभी सार्वजनिक आलोचना। कश्यप के बारे में बाजपेयी का कहना इसी ओर इशारा करता है कि मंजिल से ज्यादा जरूरी है रास्ते पर टिके रहना। अपनी नैतिक-क्रिएटिव सीमाएं तय कर लो, फिर उन पर कायम रहने का साहस जुटाओ।
गलतफहमियों की चर्चा से एक और बात निकलती है — रिश्ते तब बिगड़ते हैं जब बातचीत रुकती है। इंडस्ट्री में एक संदेश यह भी जाता है कि निजी असहमति सार्वजनिक तमाशा बनते देर नहीं लगती, और फिर असल मुद्दा भटक जाता है। यही वजह है कि अनुभव के साथ कलाकार रिश्तों को निजी दायरे में सुलझाना सीखते हैं और सार्वजनिक मंचों पर एक-दूसरे के प्रति सम्मान बनाए रखते हैं।
आज के समय में जहां ब्रांड इमेज, डिजिटल आक्रामकता और ट्रेंडिंग टैग्स फिल्म की किस्मत तय कर देते हैं, वहां किसी निर्देशक का सिर्फ क्राफ्ट पर टिके रहना असामान्य लगता है। कश्यप के बारे में चलती बातें हों या बाजपेयी की सधी हुई प्राथमिकताएं — दोनों उदाहरण बताते हैं कि शोर के बीच भी अपनी आवाज साफ रखी जा सकती है।
आगे क्या? दर्शक यह देखना चाहेंगे कि क्या दोनों फिर एक ही प्रोजेक्ट में लौटते हैं। इतिहास कहता है, जब ये दो नाम साथ आते हैं तो स्क्रीन पर यथार्थ की एक नई परत खुलती है। और हां, आज की बहस चाहे गुस्से पर हो या ट्रोल्स पर, असली खेल वही है जो एडिट टेबल पर, लोकेशन के बीचोंबीच और साउंड मिक्सिंग की रातों में खेला जाता है — वहां केवल काम बोलता है।