मनोज बाजपेयी ने कहा: गुस्से ने बना दिए अनुराग कश्यप के दुश्मन, फिर भी वे नहीं झुके

मनोज बाजपेयी ने कहा: गुस्से ने बना दिए अनुराग कश्यप के दुश्मन, फिर भी वे नहीं झुके
12 सितंबर 2025 11 टिप्पणि Kaushal Badgujar

कांच टूटे, हाथ तक जख्मी हुआ — मनोज बाजपेयी के मुताबिक यही है अनुराग का स्वभाव, और यही उनकी ताकत

मनोज बाजपेयी ने एक इंटरव्यू में साफ कहा कि फिल्ममेकर अनुराग कश्यप अपने गुस्से और समझौता न करने वाली आदत की वजह से इंडस्ट्री में कई दुश्मन बना बैठे हैं। उन्होंने यह भी जोड़ा कि यही जिद, यही यकीन उन्हें टिकाए भी रखता है। वह कांच तोड़ देने तक या खुद को चोट पहुंचा लेने तक गुस्से में चले जाते हैं, बीमार भी पड़े, पर अपने फैसलों से पीछे नहीं हटे।

बाजपेयी ने बात को यहीं नहीं छोड़ा। उन्होंने कहा, लोग केवल उनकी फिल्में देखते हैं, लेकिन सीख उनके सफर से मिलती है — लगातार ठोकरें, मुश्किलें और फिर भी काम के प्रति अनुशासन। उनके हिसाब से कश्यप उन फिल्मकारों के लिए मिसाल हैं जो रास्ते में आने वाले दबावों के आगे झुकने लगते हैं।

दोनों की कहानी 90 के दशक के आखिर से शुरू होती है। राम गोपाल वर्मा की सत्या में कश्यप ने लेखन किया और वही फिल्म बाजपेयी के भिकू म्हात्रे वाले किरदार से उन्हें अलग पहचान दिला गई। इसके बाद शूल और कौन जैसी फिल्मों में उनकी पेशेवर नज़दीकियां बनी रहीं। 2012 में गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 1 आया, और सियार की तरह धैर्यवान, पर फौलादी इरादों वाले सरदार खान के रूप में बाजपेयी फिर चर्चा में रहे। इस फिल्म ने हिंदी क्राइम-सिनेमा की टोन ही बदल दी।

मनोज ने खुलकर स्वीकार किया कि दोनों में गुस्सा साझा गुण है, पर वे खुद को ज्यादा व्यावहारिक मानते हैं। उनका कहना है, जब भी कश्यप ट्रोल्स को जवाब देने लगते हैं, तभी लगता है कि संतुलन बिगड़ सकता है। पर एक-दो दिन में वे लौट आते हैं, फिर वही फोकस, वही काम।

बीच में गलतफहमियां भी हुईं। सोशल मीडिया पर उन गलतफहमियों का आकार इसलिए बड़ा दिखा क्योंकि दोनों ने कभी बैठकर साफ-साफ बातें नहीं कीं। अब वे कहते हैं, जब बात न हो तो भ्रम बढ़ता ही है, जबकि असल वजह बहुत छोटी होती है।

कुछ दिन पहले मुंबई में जुगनुमा के प्रीमियर पर दोनों साथ दिखे। वही कार्यक्रम, जहां विजय वर्मा और जयदीप अहलावत के साथ कश्यप ने बाजपेयी के पैर छूकर सम्मान जताया। यह इशारा उनके रिश्ते की असलियत बताता है — मतभेद हो सकते हैं, पर पेशेवर सम्मान कायम रहता है।

यह पूरा प्रसंग सिर्फ दो कलाकारों की दोस्ती-तनातनी की कहानी नहीं है। यह बताता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के सेट्स पर टेम्परामेंट का रोल कितना बड़ा होता है। डेडलाइन, बजट, सेंसर, स्टूडियो नोट्स और मार्केटिंग के बीच डायरेक्टर का क्रिएटिव विजन कई बार टकराता है। कुछ लोग समन्वय चुनते हैं, कुछ लोग टकराव। कश्यप की इमेज दूसरी तरफ झुकती है — वे सौदेबाजी कम करते हैं, फैसले कड़े लेते हैं। कीमत भी चुकानी पड़ती है, लेकिन काम की पहचान अलग बनती है।

ट्रोल्स पर बाजपेयी का नजरिया व्यावहारिक है। उनकी राय में ट्रोलिंग से उलझना बेकार है, क्योंकि वहां सम्मान नहीं, बस कुंठा और शोर होता है। ऐसे लोग मेहनत से आगे बढ़े कलाकारों में कमी ढूंढते रहते हैं। इंडस्ट्री के कई बड़े नाम अब टीम-आधारित सोशल मीडिया रणनीति रखते हैं — नियम साफ हैं: भड़काऊ पोस्ट का जवाब नहीं, गलत सूचना का संक्षिप्त खंडन और फिर सीधे काम की बात।

फिल्मोग्राफी, नए प्रोजेक्ट और वह विमर्श जो हिंदी सिनेमा को दिशा देता है

बाजपेयी हाल में एक क्राइम-कॉमेडी में नजर आए, जो 5 सितंबर को नेटफ्लिक्स पर आई। उनकी परफॉर्मेंस को लेकर चर्चा है कि किस तरह वे जॉनर बदलते हुए भी किरदार को विश्वसनीय रखते हैं। उधर कश्यप की अगली फिल्म निशानची 19 सितंबर को सिनेमाघरों में रिलीज के लिए तय है। यह रिलीज कैलेंडर बताता है कि सोशल मीडिया की गहमागहमी से इतर दोनों अपने-अपने काम में जुटे हैं।

मनोज बाजपेयी का करियर उस दुर्लभ श्रेणी में आता है, जहां स्टारडम और अभिनय की साख साथ चलती है। कमर्शियल और इंडी, दोनों पटरी पर उनका संतुलन साफ दिखता है। कश्यप ने दूसरी तरफ हिंदी इंडी सिनेमा की आवाज को संस्थागत किया — क्वियर, डार्क, रियलिस्टिक और राजनीतिक कहानियों को मुख्यधारा की बातचीत में लाने का काम किया। गैंग्स ऑफ वासेपुर ने लोककथा, अपराध और राजनीति को एक फ्रेम में रखकर नया सौंदर्यशास्त्र बनाया।

उनकी साझेदारी को समझने के लिए इन पड़ावों को देखना जरूरी है:

  • 1998: सत्या — एक ने लेखन में धार दी, दूसरे ने भिकू म्हात्रे से शहर की नब्ज पकड़ ली।
  • 1999: शूल और कौन — रफ्तार बनी रही, कड़े किरदार और सख्त सौंदर्यशैली साथ चली।
  • 2012: गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 1 — सरदार खान, लोक-गाथा वाला क्राइम यूनिवर्स और नेरेटिव में क्रूर ईमानदारी।
  • 2024: जुगनुमा प्रीमियर पर फिर साथ, सम्मान के सार्वजनिक इशारे ने दूरी की बातें शांत कीं।
  • सितंबर 2024: एक की वेब रिलीज, दूसरे की थिएट्रिकल — दोनों ट्रैक पर काम जारी।

बाजपेयी के बयान में जो कांच टूटने और हाथ तक जख्मी होने का जिक्र है, वह सिर्फ सनसनी नहीं है। यह उस मानसिक दबाव का प्रतीक है जो कई निर्देशकों पर रहता है। हर रोज सेट पर फैसले, रात को एडिट, सुबह मीटिंग, दोपहर में फाइनेंसिंग — और बीच-बीच में टोकाटाकी। ऐसे में कुछ लोग भीतर जख्मी रहते हैं, कुछ बाहर। फर्क यह है कि कौन अगले दिन फिर उसी जुनून के साथ कैमरे के सामने खड़ा हो पाता है।

युवा फिल्मकारों के लिए सबसे बड़ी सीख यह है कि करियर सिर्फ बॉक्स ऑफिस नहीं है। सफर लंबा है — छोटे बजट, कटे हुए सीन, अटकी रिलीज, और कभी-कभी सार्वजनिक आलोचना। कश्यप के बारे में बाजपेयी का कहना इसी ओर इशारा करता है कि मंजिल से ज्यादा जरूरी है रास्ते पर टिके रहना। अपनी नैतिक-क्रिएटिव सीमाएं तय कर लो, फिर उन पर कायम रहने का साहस जुटाओ।

गलतफहमियों की चर्चा से एक और बात निकलती है — रिश्ते तब बिगड़ते हैं जब बातचीत रुकती है। इंडस्ट्री में एक संदेश यह भी जाता है कि निजी असहमति सार्वजनिक तमाशा बनते देर नहीं लगती, और फिर असल मुद्दा भटक जाता है। यही वजह है कि अनुभव के साथ कलाकार रिश्तों को निजी दायरे में सुलझाना सीखते हैं और सार्वजनिक मंचों पर एक-दूसरे के प्रति सम्मान बनाए रखते हैं।

आज के समय में जहां ब्रांड इमेज, डिजिटल आक्रामकता और ट्रेंडिंग टैग्स फिल्म की किस्मत तय कर देते हैं, वहां किसी निर्देशक का सिर्फ क्राफ्ट पर टिके रहना असामान्य लगता है। कश्यप के बारे में चलती बातें हों या बाजपेयी की सधी हुई प्राथमिकताएं — दोनों उदाहरण बताते हैं कि शोर के बीच भी अपनी आवाज साफ रखी जा सकती है।

आगे क्या? दर्शक यह देखना चाहेंगे कि क्या दोनों फिर एक ही प्रोजेक्ट में लौटते हैं। इतिहास कहता है, जब ये दो नाम साथ आते हैं तो स्क्रीन पर यथार्थ की एक नई परत खुलती है। और हां, आज की बहस चाहे गुस्से पर हो या ट्रोल्स पर, असली खेल वही है जो एडिट टेबल पर, लोकेशन के बीचोंबीच और साउंड मिक्सिंग की रातों में खेला जाता है — वहां केवल काम बोलता है।

11 टिप्पणि

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    Abdul Kareem

    सितंबर 14, 2025 AT 05:14
    अनुराग कश्यप का गुस्सा बस एक बाहरी रूप है। असली बात तो ये है कि वो कभी अपने विज़न को बेचने को तैयार नहीं हुए। इंडस्ट्री में ऐसे कम हैं।
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    Archana Dhyani

    सितंबर 15, 2025 AT 09:46
    मनोज बाजपेयी के बयान में जो कांच टूटने की बात है, वो बिल्कुल फिल्मी लग रहा है। असल में ये सिर्फ एक रिश्ते की तनावपूर्ण दशा है, जिसे उन्होंने एक बड़े नारे में बदल दिया। ये नहीं कि वो जिद्दी हैं, बल्कि वो अपनी असुरक्षा को गुस्से में छिपा रहे हैं। और फिर भी, ये बात बहुत अच्छी तरह से लिखी गई है, इसलिए मैं इसे बहुत अच्छी तरह से पढ़ रही हूँ।
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    Guru Singh

    सितंबर 16, 2025 AT 16:44
    गैंग्स ऑफ वासेपुर के बाद से कश्यप की हर फिल्म एक रिसर्च प्रोजेक्ट बन गई है। उनका डायलॉग लिखने का तरीका, लोकल बोलचाल का इस्तेमाल, और रियलिस्टिक डायनामिक्स - ये सब उनकी गहरी निर्माण शैली का हिस्सा है। बाजपेयी के साथ काम करने से उन्हें अपने आंतरिक रियलिटी को बाहर निकालने में मदद मिली।
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    Sahaj Meet

    सितंबर 18, 2025 AT 09:42
    ये दोनों असली लोग हैं। ना बाजपेयी ने अपनी फेम के लिए बड़े बाजार वाले फिल्म बनाए, ना कश्यप ने ट्रेंड के आगे झुकने की कोशिश की। इंडस्ट्री को ऐसे ही लोग चाहिए। जुगनुमा प्रीमियर पर जब कश्यप ने बाजपेयी के पैर छूए, तो मैंने रो दिया। ये दोस्ती नहीं, ये सम्मान है।
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    Madhav Garg

    सितंबर 19, 2025 AT 08:30
    कश्यप के गुस्से को ट्रोल्स के खिलाफ लड़ाई के रूप में नहीं देखना चाहिए। ये उनकी आंतरिक दर्द का एक अभिव्यक्ति है। वो फिल्मों के जरिए अपनी अकेलापन को जीतने की कोशिश करते हैं। और बाजपेयी, जो उनके साथ बार-बार काम करते हैं, वो इसी अकेलापन को समझते हैं।
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    Sumeer Sodhi

    सितंबर 20, 2025 AT 13:01
    ये सब बकवास है। दोनों को बस एक दूसरे के साथ काम करने का फायदा मिल रहा है। बाजपेयी को नाम का रास्ता चाहिए, कश्यप को फिल्मों के लिए एक्टर। इस बात को बड़े बड़े शब्दों में ढालना बस एक धोखा है।
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    Vinay Dahiya

    सितंबर 21, 2025 AT 13:07
    कश्यप के गुस्से का एक ही कारण है: वो अपने आप को बहुत बड़ा समझते हैं! और बाजपेयी भी इतना ही अहंकारी है। दोनों के बीच जो रिश्ता है, वो सिर्फ एक अहंकार का दर्पण है। जब तक ये दोनों अपने आप को छोटा नहीं मानेंगे, तब तक ये नाटक चलता रहेगा।
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    Sai Teja Pathivada

    सितंबर 21, 2025 AT 20:59
    अरे भाई, ये सब जो लिखा है, वो सिर्फ एक बड़ा ब्रांडिंग गेम है। ये दोनों एक अलग बातचीत कर रहे हैं और उसे सोशल मीडिया पर बड़ा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर आप उनके बीच के टेक्स्ट चैट्स देख लें, तो पता चल जाएगा कि दोनों एक दूसरे को बहुत नीचा बताते हैं। ये सब बाहरी नाटक है। 😏
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    Antara Anandita

    सितंबर 23, 2025 AT 07:12
    कश्यप के गुस्से का एक और पहलू है - वो अपने फिल्मों में जो अंधेरा दिखाते हैं, वो अपने अंदर के अंधेरे को बाहर निकालने का तरीका है। बाजपेयी उनके इस अंधेरे को समझते हैं, इसलिए वो उनके साथ रहते हैं। ये कोई दोस्ती नहीं, ये एक चिकित्सा संबंध है।
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    Gaurav Singh

    सितंबर 25, 2025 AT 04:52
    कश्यप का गुस्सा बस एक शोर है, और बाजपेयी उस शोर के बीच भी अपनी आवाज बनाए रखते हैं। ये दोनों एक दूसरे के लिए एक शांति का बिंदु हैं। और हाँ, जुगनुमा प्रीमियर पर जब कश्यप ने पैर छूए, तो ये सब बकवास बंद हो गया।
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    ashish bhilawekar

    सितंबर 25, 2025 AT 07:20
    भाई ये दोनों असली आग हैं। बाजपेयी का गुस्सा बस एक शांत आग है - धीमी, लेकिन जलती रहती है। कश्यप का गुस्सा बिजली की तरह है - चमकता है, गरजता है, और फिर खामोश हो जाता है। लेकिन जब दोनों साथ होते हैं, तो आग बन जाती है एक आगार - जिसमें से फिल्में निकलती हैं। ये नहीं कि वो दोस्त हैं, बल्कि वो एक दूसरे के लिए अग्नि का स्रोत हैं।🔥

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